उस दिन सुबह वो खबर सुन कर ही निर्वाक् रह गई। कैसे...? हे! भगवान!
ये तो स्पष्ट ही दिख रहा था किंतु इतनी जल्दी यह घटित हो जाएगा। सोचा न था।
उनका चेहरा ही आँखों के आगे घूम रहा था। यथार्थ में घटित हो चुकी इस घटना पर
मन मानस विश्वास ही नहीं कर पा रहा था।लेकिन इस पर विश्वास करने के बाद
इनसानियत के नाते ये तय था कि एक बार तो मिलने मुझे जाना ही है वहाँ जिनके दुख
की कल्पना से ही यह घटना अविश्वसनीय लग रही थी।
आज जब वह गाँव निकट से निकट आते लग रहा है तो मन बार-बार भर आता। अब तक का
रास्ता यद्यपि सबने बातों में ही पार करने की कोशिश की लेकिन सब के मन में
उनके लिए बेहद दुख है और सभी एक दूसरे से अपना दर्द छुपा कर लगातार सहज बनने
की कोशिश में लगे हैं। बातों का सिलसिला थोड़ा थमते ही वही चेहरा सबके सामने
घूम जाता। उस चेहरे से जुड़े दूसरे चेहरों का दर्द भी लहरा जाता। तभी कोई चर्चा
छेड़ जाता। जबर्दस्ती ठेली सी चर्चा यूँ ही लंबी सी होती जाती और उनमें बीतता
वह समय कुछ क्षणों के लिए उनकी याद को कम कर देता। तब लगता वो भी क्या कुछ
क्षणों के लिए भी भूल पाती होगी जिनके जीवन का आधार ही वे थे।
गाड़ी सरपट दौड़ रही है। उनको लेकर भी कोई गाड़ी इसी रास्ते से गुजरी होगी... मैं
यही सोचने लगी...। वो दोपहर, वो हवा, वह दिन उस गाँव का कैसा भयानक रहा होगा।
इस सदमे को झेलने वालों के लिए। वह दृश्य कल्पित कर ही नजारा साँय साँय करता
कनपटी से टकराता है तो उनकी पत्नी ने यह कैसे झेला होगा। सदमा झेलने वाले की
सहन की सीमा क्या हो सकती है। हिंदू स्त्री के लिए तो इससे अधिक दुर्भाग्य हो
ही नहीं सकता। तकदीर तो ऐसे बिखर बिखर जाती है कि पूरी उमर सिमटती ही नहीं है।
एक ही हवा तैरती है चारों तरफ दुख, दर्द और आँसू। उनकी पत्नी विवर्ण चेहरा लिए
दुख में कितनी कातर हो रही होंगी मैं ये अनुमान सहज ही लगा सकती हूँ।
कैसे न कर पाऊँ ये? कई वर्ष मित्रवत साथ गुजारे हैं हमने। छोटे छोटे सुख दुख
में साथ चले हैं हम। मकान किराए की परेशानी या कामवाली की समस्या, बच्चों की
बीमारी या पढ़ाई, घरेलू मुश्किलें या पारिवारिक अड़चनें। हर दम साथ रहे हैं।
हम वहाँ स्थानांतरित होकर आए तब वे पहले ही रहते थे। अध्यापकीय जीवन बिताते,
सादा जीवन शांत विचार। न उधो का लेना न माधो का देना। अध्यापक की तन्ख्वाह में
जितने पैर पसार सकते थे उससे भी कम में जीवन गुजारते। सीमित साधनों में जीवन
गुजारना तय कर लिया था उन्होंने। बच्चों को भी इसी साँचे में ढालना चाहते थे
ताकि भविष्य की विषम परिस्थितियों में वे भी निबाह कर सके। भविष्य किसने जाना
है और कौन जान पाया है? सदा यही बात कहते। उन्होंने शायद समय की आहट पा ली थी
तभी तो...
जैसे-जैसे गाँव निकट आया और गाड़ी ने गाँव में प्रवेश किया मन लगातार भारी होता
रहा। उनका वो सजा सँवरा रूप याद आते ही मन उनके अतीत में भटकने लगा। इसी गाँव
में तो ब्याह करके आई थी वो नवोढ़ा।
...अठारह वर्ष की किंतु निश्छल अबोध बालिका सी। ग्यारहवीं में पढ़ती वह
दुनियादारी से निपट अनजान थी। जेठानी ने तो घूँघट उठाते ही झट से ढक दिया।
'गुड्डी सी है बीनणी जतन से रखना देवरजी! और तब गुड्डी बीनणी का वह गुड्डा भी
कैसे शरम से लाल गुलाबी हो गया था। उसने दोनों भोले पंछियों की नजर उतारी थी।
दोनों को पूरा-पूरा समय साथ बिताने देती। सासू अक्सर ही डाँटती जेठानी को कि
अरे! सारा काम खुद ही करती रहोगी तो नई देवरानी सिर चढ़ बैठेगी फिर निबाह कैसे
होगा!
लेकिन वो हँस देती और कहती माँ बच्चे ही तो है चहकने दो। काम के लिए तो जिंदगी
पूरी पड़ी है। ये समय लौट कर थोड़े ही आएगा। और सचमुच वह समय लौट कर न आया।
धीरे-धीरे गुड्डी बीनणी में परिपक्वता आई लेकिन उन्होंने कभी किसी को शिकायत
का मौका न दिया। जेठानी जी तो उन्हें बड़ी बहन से भी न्यारी लगती। उन जेठानी ने
इस जोड़े का टूटना पहले पहल सुना होगा तो क्या वह दुख के गर्त में न डूब गई
होगी...।
गाँव के चौंहटे में गाड़ी रुकी। मुझे उतरने का इशारा हुआ लेकिन मेरा मन तो दूर
उस चेहरे से जा मिला और पैरों ने जैसे हिलने से मना कर दिया। निर्विकार नजरों
से लगातार कहीं देखती रही। चेतना लौटी और अपने आपको गाड़ी से नीचे ठेला। वह घर
सामने ही नजर आया। यहीं ऐसे ही कभी वह दुल्हन बनी उतरी होगी सकुचाई लजाई सी।
यहीं वह उनको लिए भी आई होगी। अपने जीवन का निर्जीव रूप। निढाल सी सदमे से
सहमी बेजान चली होगी। और ...और यहीं मैं...। यह जगह ...यह भी तो ये सब झेल रही
है। न जाने कितने-कितने, किसके-किसके दर्द पी कर पत्थर हो गई है यह धरती भी।
सब सह जाती है पाषाण सी। स्त्री का दर्द देख देख कर वह जड़ हो गई किंतु इनसान
जड़ नहीं हो सकता। उसे चलते ही जाना है दुख में रोकर दर्द को पीकर और सुख
में...? सुख तो कभी होता ही नहीं है। हर कोई इसका स्वाद चखे ऐसी तकदीर नहीं
होती। हो तो भी दुख की आशंका दहलीज पर दस्तक दिए रहती है। कब प्रवेश कर जाए
पता नहीं? कितनी ही ऊँची दीवारें चिनवा ले खिड़कियाँ तो होती ही है। चुपके से
प्रवेश कर जाती है। लेकिन उनके शायद गृह प्रवेश के साथ ही दुख प्रवेश कर गया
था और घात लगाकर बैठ गया। जब दो बच्चों के साथ अपने जीवन को स्वर्ग समान समझे
बैठी थी कि उसने हमला कर दिया।
...लेटे लेटे एक दिन उनके पति को सिर दर्द उठा। हथौड़े से उन वारों को झेलते वह
पसीने से लथपथ हो हाँफने लगे। यूँ भी भारतीय स्त्री का जीवन एक अनजानी आशंका
से हरदम धड़कता रहता है वो है पति की स्वस्थता को लेकर। उसकी एक भी पीड़ा वह
अपने ऊपर हजार गुना महसूस करती है क्योंकि उसके जीवन का सुख, सब रंग, आचरण सब
पति पर पूरी तरह निर्भर करता है। उसका न रहना दुर्भाग्यपूर्ण होता है। इसीलिए
उसका जीवन आशंका में ही बीतता है। दुख में दुखी रहकर और खुशी में दुख के प्रति
आशंकित रहते।
...यही उसने भी सोचा होगा की कि ये क्या हो गया इन्हें? हे! ईश्वर इन्हें
जल्दी ठीक करना। कुछ हो न जाए। उस वक्त तो वह दर्द कुछ दवाओं से बैठ गया। कई
दिन ठीक रहा लगा कि शुक्र है भगवान का कि एक बार उठ कर रह गया। ये विचारना ही
था कि उस दर्द ने फिर आक्रमण किया। स्कूल में बेहोश हो गए दर्द से तड़पकर। दो
लोग उठा कर घर लाए। ये देख वह गहन तक दहल गई। फिर चला जाँचों का सिलसिला शुरू
हुआ। कुछ दिन बाद उसे बताया गया कि सब ठीक है। बस यूँ ही पीड़ा हो गई थी।
पर स्त्री अपने पति को पढ़ न सके ऐसा भला कहीं हो सकता है? वह संतुष्ट न हुई।
मन न माना। उसका डूबता हदय कुछ और ही इशारा कर रहा था। यदि सब बहुत ही ठीक ठाक
होता तो वे ऐसे खोए-खोए यूँ गुमसुम न रहते। उसका खुद का दिल न बैठता। इनसान
बीमारी निकलने के बाद कमजोरी रहते हुए भी राहत महसूस करता है लेकिन वे अक्सर
ही हड़बड़ा कर आँसू पोंछते नजर आते। उसका सामना करने में उसकी आँखों में देखने
से भी कतराते। वह लाख कसमें दे देकर पूछती। वे हँसकर टाल देते।
एक दिन रिपोर्ट उसके हाथ लग गई। वे स्कूल से लौटे तो देहरी पर पथराई आँखें,
बिखरे बाल निढाल सी बुत बनी पडी़ थी। देखकर दया उमड़ आई उनको। उठा हिलाया
डुलाया लेकिन बस टुकुर टुकुर देखती रही। कई दिनों तक ऐसे ही रही थी। मैं अक्सर
मिल आती। उन्हें होश ही नहीं था। सुध बुध बिसरा कर न जाने क्या कल्पना कर
वह...। ब्रेन ट्यूमर का पता चलने से ही वह हालत हो गई थी तो साक्षात यह
सदमा...।
अब घर से भी रुदन की आवाजें आने लगी थी। इसमें उनका भी रुदन होगा? कितना रोएगी
अपनी तकदीर पर? कोई सीमा नहीं है रोने की जबकि दुख असीम है।
भारी कदमों से ही चल पा रही थी मैं। वह घर भी आ गया। जिसका एक पहिया छूट चुका
है। एक पहिए का लंगड़ाता यह घर कितना और कैसे चल पाएगा।
...वे भी तो चलने फिरने में कमी महसूस करने लगे थे। वो तो तब से ही जिदंगी से
बेजान हो चुकी थी। बस घिसट रही थी। उनको घर आने में घड़ी भर की भी देर हो जाती
तो बौखलाई सी अपने बाल नोंचने लगती। सँभाले न सँभलती। हम भी क्या सांत्वना
देते कि घबराओ मत, कुछ नहीं होगा जबकि हम खुद आशंकित रहते। ''कोई लाओ ...उनको
जल्दी लाओ... अरे एक बार ...दिखा दो ...कह दो ठीक है...'' का कातर स्वर सुना न
जाता। धीमे-धीमे कदमों से वह आते दिखते तो हम भी जैसे जी जाते। उनको तो जैसे
नई जिदंगी मिल जाती। नौकरी के अलावा कहीं जाने न देती। रोज-रोज मर कर वह जीना
सीख गई थी। कहीं जाते तो आँखों के ओझल होने से लेकर लौटते नजर आने तक देहरी पर
बेचैनी से प्रतीक्षा करती आशा निराशा में डूबती उतराती। उन्हें आता देख पल्लू
मुँह में दबाकर भीतर दौड़ पड़ती।
उनके जाने के बाद उसका क्या होगा? कैसे झेलेगी? ये सोच-सोच कर वे झुरते, दुखी
होते। खुद से ज्यादा उन्हें उसकी व बच्चों की चिंता अंदर ही अंदर खाए जाती।
बेचारी! ...किस्मत की मारी! क्या तकदीर लेकर आई है मेरे पीछे। हरदम मरते ही
रहना। यही देखा है इन महीनों में उसने। एक अनहोनी की आशंका हर समय ही फन फैलाए
रहती कि कहीं सच न हो जाए। एक खामोशी भाँय-भाँय मनहूस सी पाँव फैला रही थी। और
धीरे-धीरे बीमारी ने भी पाँव पसारने शुरू कर दिए।
हाथ धीरे धीरे कमजोर से होने लगे। शर्ट के बटन बंद करना भी बहुत मुश्किल सा
होने लगा। लेकिन कैसे कहे और किससे कहे? बच्चे कुछ सहमे सहमे भयग्रस्त दिखते।
कभी कभी उनकी अठखेलियाँ बैठे देखते रहते। आँखें डबडबा आती। इनका बचपन जल्द ही
गुम हो जाएगा। कभी पढ़ाई के लिए डपटते पर अगले ही पल सँभल जाते। कुछ ही दिनों
की बात के लिए क्यूँ डाँटूँ। पढ़ेंगे ही, नहीं तो किसका सहारा होगा उनको। अपने
जीवन की जंग उनको अकेले ही तो लड़नी है पिता की छाया वाली निश्चिंतता से तो वे
जल्दी ही वंचित हो जाएँगे। कुछ समय के लिए ही सही इनका मुस्कुराता चेहरा तो
देख तृप्त हो लूँ। उन जहरीले क्षणों से अभी ही आतंकित नहीं करना चाहते थे
बच्चों को। पितृहीन बच्चे कैसे दयनीय हो जाते हैं, ये कई परिवारों में देखा
है। अब उनके बच्चे भी...
...पत्नी को कैसे बताए? पहले ही मुर्दा सी है। निकट भविष्य जान लेगी तो...?
कभी सोचते सब कुछ सच बता दे उसे ताकि सदमे के लिए तैयार रहे। मन का दर्द ये
छटपटाहट चुपचाप नहीं पी जाती। पत्नी से जी भरकर बातें करना चाहता हूँ, बहुत
कुछ भीतर मचलता है उसे उँड़ेलना चाहता हूँ, बच्चों को गले लगाकर महसूस कर रो
लेना चाहता हूँ। अपना प्यार प्रकट करना चाहता हूँ। सोच-सोच वह फड़फड़ा उठते
लेकिन कुछ फिर न जाने क्या सोच कर रुक जाते। कदम आगे ही नहीं बढते। नहीं...
नहीं... उसे और कितना मारूँ? मरना तो है ही उसे ताउम्र। बेरंग वस्त्र, कोरी
माँग, सूने हाथ, सूनी आँखें लिए कोई साया नजर आता। नहीं!!! वे चीख उठते। जिससे
अथाह प्यार करते हैं उसे ही अथाह दुख देकर जाना है। कितनी विवश है वो और कितने
मजबूर वे। एक ओर वह अपने पति को तिल तिल मरता देख रही है जो सदैव ही प्राणों
से प्रिय लगे। दूसरी ओर वे हैं, जिसके साथ सुख दुख में संग रहने के कई कई वचन
उन अनमोल क्षणों में लिए उनको किसी भी प्रकार से निभाने में असमर्थ है। उन
सुखदायी अनमोल दिनों में वह समस्त खुशियाँ उनके लिए ला देने की तमन्ना रखते
थे। सदैव यही सोचा कि अपनी पत्नी को कभी भी दुखी नहीं करेंगे चाहे
परिस्थितियाँ कैसी ही दुर्गम क्यूँ न होगी लेकिन इस परेशानी के बारे में तो
उन्होंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी। इस पर कोई जोर भी नहीं। औरत की समस्त
खुशियों की धुरी पति होता है। और अब वे ही...। अब सचमुच स्त्रियों की दशा पर
चिंता होती। काश! समाज ने पतिहीन स्त्रियों के जीने की कोई पगडंडी निकाली
होती। वे व्यथित हो जाते। हे! ईश्वर मेरे अपनों को ही इतना बड़ा दुख दे जाऊँगा।
निरुपाय रोते। उनकी बीमारी पूरे परिवार को दुख के गर्त में ढकेलती जा रही थी
लेकिन सब बेबस थे।
...धीरे-धीरे निशक्तता बढ़ने लगी। ऐसी हालत को वो बस दीवार पर सिर टिकाए सूनी
दर्द भरी आँखों से तकती रहती जैसे उस चेहरे को पी जाना चाहती हो। इस तरह आँखों
में बसा लेना चाहती हो कि कभी आँखों से ओझल ही न होने पाए। दोनों की ही आँखों
से कभी आँसू ढुलकते कभी पत्थर की तरह बेजान। बच्चे माँ के पीछे दुबके दुबके
पिता को भय भरी आँखों से देखते। कभी उन्हें अपने पास बिठाकर अपने दुर्बल
काँपते हाथों से सिर पर हाथ फेरते कुछ कहना चाहते लेकिन गला रुँध जाता पहले
ही। पत्नी से अब जमा पूँजी की बात कहना चाहते लेकिन कमजोर होती जबान से स्पष्ट
कुछ न कह पाते। अंदर भरा दर्द उमड़ता लेकिन शब्द साथ न होते।
कहीं पढ़ा कि ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन एक आशा है। जानकर ही जैसे आधी जी गई।
डॉक्टर साहब के पैरों में अपने गहने और जमा पूँजी रख दी। हाथ जोड़े लड़ियाँ बहती
आँखों में क्या अरदास थी ये डॉक्टर साहब अच्छी तरह समझ सके। रोज ही ऐसी
भावनाओं से अपनी आँखें और मन नम महसूस करते है। और हर दुख का रंग एक सा गहन
दर्द भरा पीड़ादायी होता है। डॉक्टर साहब उनके सिर पर पिता की भाँति हाथ फेर कर
सांत्वना देते रहे। लेकिन उनकी आँखों में डॉक्टर साहब के लिए बेहद आशाएँ भरी
थीं। आखिर उनकी आशा के घुटने तोड़ने पड़ गए यथार्थ से परिचित कराने के लिए।
''बहन! कुछ ही दिन शेष है उससे भी हाथ धो बैठेागी।'' वह बस विस्फारित नेत्रों
से तकती रही। जब डॉक्टर साहब सिर झुकाए आगे बढ़ गए तो वे रीढ़विहीन की तरह लुढ़क
गई। जैसे बस एक उन्ही पर ईश्वर की भाँति आशा टिकी थी। और ईश्वर का सहारा हटते
ही...।
...साथ खड़े सभी परिवार जन का भी लंबे समय तक रोका आशा और धैर्य का सैलाब नियति
के आगे आखिर उमड़ पड़ा। उन सबके आँसुओं में उसे अपना व बच्चों का शापित जीवन
निश्चित सा नजर आया।
...उन दुख भरे दिनों को भी वह बीतने नहीं देना चाहती थी। किसी भी कीमत पर
उन्हें थामकर जीवन जीना मंजूर था। उनकी मौजूदगी ही अब उनके लिए किसी स्वर्ग को
पा लेने से कम न थी। भगवान से यही प्रार्थना करती कि भले ही ऐसे ही रहे, मैं
सेवा कर लूँगी ताउम्र पर इन बच्चों का सहारा व मेरा सुहाग न छीनना। लेकिन
ईश्वर का ध्यान कहीं और था उनकी आवाज उन तक पहुँची ही नहीं। उस दिन जब उन्हें
अस्पताल ले जाया जा रहा था तब लग गया था कि ये आखिरी बार है। उनके भाई ने उनके
गले लग कर जार-जार रोते हुए कहा ''दीदी! कुछ बात करो जीजाजी से, कुछ कह लो मन
में मत रोको फिर शायद... !''तभी तो झटके से उठ कर उन की ओर दौड़ पड़ी लेकिन बीच
में ही कटे पेड़ की तरह गिर पड़ी और चेतनाशून्य हो गई। स्ट्रेचर पर लेटे उनको
उनके पास लाया गया। दुर्बल लेकिन आँसुओं से लबालब आँखों से एकटक देखा और एक
गहरी दर्द भरी साँस लेकर हाथ जोड़ने की कँपकँपाते हाथों से असफल कोशिश की।
दोनों बच्चों को किसी ने उनकी ओर किया। आखिरी बार एक दूसरे को देख लें। वे
पापा पापा कहते हिचकियाँ भर भर रोने लगे। ज्यादा तो नही पर इतना तो वे अबोध
समझ ही गए कि कुछ बुरा होने वाला है। उन्होंने अपने बच्चों के सिर काँपता हाथ
फेरना चाहा लेकिन दुख से छलक रहे उस दृश्य से आँखें फेर ली और खुल कर सुबक
पड़े। यह देख सबका ही हदय फट पड़ने सा हो गया।
घर के भयावह कमरे के बाद चौक से सटे कमरे तक पहुँची। कमरे में नीम अँधेरा था।
मुँह भींच कर जबड़े कस लिए मैंने। उन्हें हिम्मत दूँगी, मन ही मन सोचा मैंने।
आँखें अँधेरे की कुछ अभ्यस्त हुई तो देखा एक हड्डियों का ढाँचा बेजान बेरंग सा
किसी परिजन की गोद में पड़ा था। भींचे दाँत, विस्फारित आँखें और ऐंठे हुए हाथ।
बिखरे बिखरे कपड़े। तभी एक स्त्री उनकी नाक को दबा कर दाँतों का जुड़ाव खोलने की
लगातार कोशिश करने लगी। किसी ने कहा इन चार दिनों में पचासों बार दाँत जुड़े
हैं। दुख या दर्द से विदग्ध होते ही जहाँ शरीर की सहन शक्ति खतम होने लगती है
वहाँ तन यह ऐसा कवच ओढ़ लेने की कोशिश कर दर्द या दुख की पराकाष्ठा को झेलता
है। उनके मन के दर्द की तो कोई सीमा थोड़े ही है। मुझे लगा उनकी धड़कन भी चल रही
है यही गनीमत है। ऐसे में धीरज और हिम्मत के शब्द बेमानी से लगते हैं। क्या
कहूँगी इस हालात में दुखी मत होओ सब ठीक हो जाएगा? विधवा स्त्री के जीवन को
समाज कब ठीक से चलने देता है। क्या मैं ये जानती नहीं।
फिर उस स्त्री ने उनके गाल थपथपा कर कहा, ''देख उठ!! तेरी जीजी आई है... उठ...
आँखें खोल ...कोशिश कर ...तुझसे मिलने आई है... एक बार आँख तो खोल...'' कहते
कहते ही वह स्त्री पल्लू आँखों पर रख खुद ही सुबकने लगी। कुछ पलों बाद वह
स्त्री खुद को सँभाल कर फिर उन्हें हिला डुला कर उठाने की कोशिश करने लगी। मैं
बुत बनी खड़ी ही रह गई। लगा जैसे अब कदम उठ नहीं पाएँगे। हे! भगवान ऐसा हाल हो
गया है। उनकी तकदीर पर तरस खाने की सुगबुगाहट जारी थी। आगे के जीवन में जितनी
भी परेशानियाँ आने वाली थी उनका वाचन हो रहा था। सुन सुन कर मेरे दिल का
भारीपन बढ़ने लगा। किसी ने कहा होश में भी कम ही रही है और एक शब्द भी मुँह से
नही निकाला है तब से। दिल खोल कर रोई भी नहीं है। सीने में बोझ भरा है लेकिन
रुलाई नहीं फूट रही। दुख से पाषाण हो गई है। हर तरह से रुलाने की कोशिश की पर
व्यर्थ। दोनों बच्चों की निरीह सूरत देख कर भी इनका हिया नहीं उमड़ सका। आँखों
की पुतलियाँ तक नहीं हिली। ऐसे काठ बनी रही तो मानसिक रोगियों सी स्थिति न हो
जाए। बच्चों को कौन सँभालेगा? सच ही है चार दिन दुख में दुख जताने आते है लोग।
आखिर तो शरीर का बोझ पैरों को ही उठाना है। हमेशा का दर्द तो येन केन प्रकारेण
स्वयं ही झेलना पड़ेगा। आदत डालनी पड़ेगी।
उनकी यह दशा देखकर मेरे मन का गुबार फूट पड़ने को आतुर हुआ। पीली कृशकाया को
देखते देखते मेरी दृष्टि उनके चेहरे पर धँसी पथराई आँखों पर अटक गई। उनका दर्द
मेरी आँखों में बह चला। भावों की उष्मा दर्द के सेतु-बंध पर चल उन तक पहुँच
गया तभी तो वो पथराई आँखें एक पल झपक गई। हिली डुली वह पाषाण। शिला के भीतर
कुछ पिघला, कुछ चेतना हुई और चेहरे की भाव शून्यता भरने सी लगी। चेहरा जबड़े
होंठ नरम पड़े ...थोड़ा लरजे... आँखें दो तीन बार झपकीं ...और आँखों से गर्म
लावों सोता फूट पड़ा... मैंने अपनी प्यारी सहेली को थामने के लिए अपनी बाँहें
फैला दी...